कर्म
हो “कर्तव्य” सदा, भाग्य ही अधिकार हो.
मांगना
स्वभाव न हो, “प्राप्ति” ही स्वीकार हो.
मानवता हो धर्म यहाँ, “मूल्य” ही व्यव्हार हो.
स्वभाव
हो सरल सदा,स्वधर्म से भी प्यार हो.
धर्म की स्थापना हो,अब पाप का “संहार” हो.
धर्म
रक्षा हेतु समर्पित,शीश और तलवार हो.
“राष्ट्रभक्ति” बसे ह्रदय में, राष्ट्रप्रेम उद्-गार हो.
“कर्मनिष्ठा” ही आचरण हो,कदमों में संसार हो.
कर्म हो इतना प्रबल, कि हारता “करतार” हो.
मांगना
स्वभाव न हो, “प्राप्ति” ही स्वीकार हो.
....बिगबास
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